REG. No- UP-38-0008143


The Kanshiram story : 21वीं सदी के महानायक मान्यवर कांशीराम साहब का जीवन संघर्ष की कुछ झलकियां :-डॉ0 अवनीश कुमार


न्यूज़ अब तक आपके साथ
देश प्रदेश का सबसे बड़ा न्यूज़ नेटवर्क बनाने का सतत प्रयास जारी।

● कांशीराम जी के जन्म और उनकी उपलब्धियों की कुछ झलक- 
कांशीराम जी के दादा स्व0 धलोराम लाहौर में फौजी थे सेवा निवृत होने के बाद उन्होंने अपने गाँव खवासपुर (जिला रोपड़ पंजाब) आकर चमड़ा रंगने का घरेलू उद्योग स्थापित किया उनके तीन बेटे हरिसिंह, बिसन सिंह, रचन सिंह तथा एक बेटी ‘हरो’ थी।
बिसन सिंह तथा रचन सिंह तो फौज में चले गए और हरि सिंह अपने पिता द्वारा स्थापित घरेलू उद्योग में चमड़ा रंगने का काम करते रहे। अतिरिक्त आप के लिए वे नहर महकमे की जमीन में ठेके पर खेती भी किया करते थे।

● कांशीराम नाम रखे जाने की पूरी कहानी, कैसे पड़ा ये नाम ? -
इन्हीं हरिसिंह के घर 15 मार्च 1934 को माता विशन कौर की कोख से एक होनहार बालक कांशीराम का जन्म हुआ. पंजाब के रोपड़ जिले के एक गाँव पिरथीपुर जहाँमाता विशन कौर का मायका है, स्थानीय परम्परा के अनुसार पहले बच्चे का जन्म ननिहाल में ही होता है. इनके जन्म के समय इनके ननिहाल में एक महात्मा पधारे हुए थे. सारे गाँव वालों की उनमें श्रद्धा थी. उन महात्मा का नाम कांशीराम था. उनके नाम से प्रभावित होकर ही बड़े-बजुर्गों ने कांशीराम नाम की सलाह दी थी, माता विशन कौर जी महात्मा के प्रवचन सुनने जाया करती थी और उनकी मीठी बोली नेक करनी आदि से वही प्रभावित थी, माता जी को भी कांशीराम नाम से कोई आपत्ति नहीं थी।

महात्मा ने पहले ही कि थी भविष्यवाणी, बेटा देश का नाम रोशन करेगा-
माता विशन कौर जी को महात्मा जी ने पहले बता दिया था कि तुम्हारे गर्भ से एक होनहार बालक का जन्म होगा जिसका नाम देश के कोने-कोने में होगा। वह बालक बहुत बड़ा नेता बनेगा, जो तुम्हारे खानदान का नाम रोशन करेगा। घर में सभी बड़े-बजुर्ग तथा कांशीराम जी के पिता और चाचा जी भी केशधारी सिक्ख होने के कारण माता बिशन कौर जी ने कांशीराम के भी केश रखवाये थे लेकिन वह बचपन से ही बड़े जिद्दी थे किसी भी बंधन के शुरू से ही खिलाफ थे और वह अक्सर केश कटवाने की जिद्द करते थे लेकिन  माता बिशन कौर उनको समझा-बुझा कर चुप करा देती लेकिन यह फिर जिद पकड़ लेते थे एक दिन की बात है कांशीराम ने कैंची से अपने केश खुद ही काट डाले तथा फिर आजीवन केशधारी नहीं बने कांशी राम जी का बचपन, ननिहाल एवं पैतृक दो जगह पर बीता बालक कांशीराम जब  5 वर्ष के हुए, तो उन्हें घर से 2 किलोमीटर दूर स्थित मलकपुर गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने भेज दिया।

कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए मिलने लगा था वजीफ़ा,मनुवाद के थे कट्टर विरोधी होता था भेदभाव-
कांशीराम की कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए चौथी क्लास से ही वजीफा मिलना प्रारम्भ हो गया था। जो बी0एस0सी0 तक जारी रहा। कांशीराम के पिता जी एक स्वाभिमानी इंसान थे, जो खालसा पंथ में दीक्षित हो गए थे। वे हिन्दू धर्म में नहीं रहना चाहते थे, जो उँच-नीच तथा भेदभाव की खोखली बुनियादों पर खड़ा था। उस समय पंजाब में आर्य समाज का भी बड़ा जोर था वे आर्य समाज की विचारधारा से प्रभावित थे। अतः मनुवाद के कट्टर विरोधी थे। कांशीराम जिस स्कूल में पढ़ते थे वहाँ पर दलित समाज के सभी बच्चों को अलग बैठाया जाता था और बच्चों से और उनके पीने के पानी का घड़ा भी अलग होता था। यह बात कांशीराम जी के पिता को अच्छी नहीं लगती थी। यही वजह था कि उन्होंने छठी कक्षा से कांशीराम को रोपड़ स्थित इस्लामिक स्कूल में दाखिल कर दिया। वहाँ पर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं होता था। इस स्कूल में कांशीराम जी 8वीं कक्षा तक पढ़ें 9वीं क्लास से आगे कि शिक्षा उन्होंने रोपड़ के पब्लिक कॉलेज से ग्रहण की।
पढ़ाई के दिनों में भी कांशीराम जी अपने पिताजी पर निर्भर नहीं रहे। अपना खर्चा चलाने के लिए कांशीराम छुट्टियों में छोटे-मोटे काम कर लिया करते थे। इसके लिए उन्हे कठोर परिश्रम करना पड़ता था। गर्मीयां की छुट्टियों में आम के बगीचे खरीद लिया करते थे। कुछ मजदूर लगा कर तथा खुद भी आम तोड़कर, बोरो में भरकर उन्हें मण्डी में बेच आते थे। इसके अतिरिक्त वे चमड़ा रंगाई के साथ-साथ खेती-बाड़ी में भी अपने पिता जी का हाथ बटाते थे।

पढ़ाई के साथ-साथ प्रतियोगिता में भी लेते थे भाग,जीतते थे मुकाबला-
पढ़ाई के साथ-साथ वे खेलों में भी बराबर रूचि लेते थे। स्कूल-कॉलेज के दिनों में वे बहुत से इनाम जीत कर लाया करते थे। खास कर दौड़ में। उन्हें उन प्रतियोगिताओं में दौड़ा हुआ देखने वाले कहाँँ करते थे कि एक दिन ऐसा आएगा जब यह ‘लड़का’ जिंदगी की दौड़ में बड़े-बड़ों को पीछे छोड़ जाएगा। गाँव के बाहर खुले देहात में हर शाम सभी जातियों के लड़के कुश्ती लड़ा करते थे। कांशीराम बिना नागा उसमें जाते। अपने लंबे-चौड़े शरीर की बदौलत वे हर किसी की पीठ लगा दिया करते थे। पूरे गाँव में उनके मुकाबले का कोई नवयुवक नहीं था।

हस्ताक्षर करने से किया इनकार , बंधुआ मजदूर बनाना नही था मंजूर-
वर्ष 1956 में पंजाब के जिला रोपड़ के पब्लिक कॉलेज से बी0एस0सी0 की शिक्षा प्राप्त की और एक वर्ष बाद 1957 में “सर्वे ऑफ इण्डिया की परीक्षा पास कर ली थी। ट्रेनिंग के लिए उन्हें देहरादून बुलाया गया ट्रेनिंग के  दौरान ही सभी ट्रेनिंग कर्त्ताओं को एक बॉण्ड भरने के लिए कहा गया। इस बॉण्ड में एक निश्चित समय सीमा के लिए ‘सर्वे ऑफ इण्डिया’ की नौकरी करना अनिवार्य था। सभी ट्रेनिंग कर्त्ताओ ने उस पर हस्ताक्षर किए लेकिन जन्मजात आजाद’ कांशीराम ने हस्ताक्षर करने से इंकार करते हुए कहा कि “मैं सरकार का बंधुआ मजदूर बनने से बेहतर समझता हूँ कि इस नौकरी को छोड़ दू” इस प्रकार कार्य भार संभालने से पहले ही ट्रेनिंग काल में ही नौकरी वह उन्होंने छोड़ दी। होता वही है, जो होना होता है।

इस नौकरी को पाने के लिए कांशीराम ने की कड़ी मेहनत, फिर वैज्ञानिक बनने की बनाई योजना-
नियति को कुछ और ही मंजूर था, वास्तव मे उन्हें तो कही और ही जाना था. कुछ ही दिनों बाद फौज के डिफेंस साईस एण्ड रिसर्च डवलपमेंट आर्गनाइजेशन की परीक्षा पास कर पूना में वे ‘किर्की‘ एक्सप्लोसिव रिसर्च एण्ड डवलपमेंट लेबोरट्री‘ (ई०आर०डी०एल०) में अनुसंधान सहायक के पद पर नियुक्त हुए। इस पद को पाने के लिये उन्हे बहुत मेहनत करनी पड़ी अन्ततः इस पद पर पहुँच कर वे अपनी प्रगति से संतुष्ट थे तथा वहीं से आगे बढ़ते हुए उन्होने एक उच्च कोटि का वैज्ञानिक बनने की योजना बना ली थी. लेकिन हालात को तो कुछ और ही मंजूर था।

कांशीराम को तो दलित राजनीति की प्रयोगशाला में जाना था,बदल गई उनकी सोच-
इस नौकरी में वे मात्र 5 वर्ष ही रह पाए। हालांकि वे पूरी तरह से इस नौकरी के प्रति समर्पित भाव से काम कर रहे थे लेकिन वहाँ घटी एक घटना ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। वहाँ घटी एक घटना ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। वास्तव में आना उनको विज्ञान प्रयोगशाला में नहीं, बल्कि दलित राजनीति की प्रयोगशाला महाराष्ट्र में था। इसी प्रयोगशाला में कभी बाबा साहेब डॉ0 बी०आर0 अम्बेडकर ने अपना ऐतिहासिक मिशन चलाया था तथा उनसे पहले भी सामाजिक परिवर्तन तथा क्रान्ति के बिगुल वहाँ बजते रहते थे।
उस समय महाराष्ट्र में दलितो के जागरण को देखते हुए ई.आर.डी.एल0 में बुद्ध जयंती तथा डॉ० अम्बेडकर जयंती पर छुट्टी होती थी। लेकिन कुछ मनुवादी विचाधारा के सांप्रदायिक अधिकारियों ने इन दोनों छुट्टियों को खत्म कर दिया था। इन अधिकारियों ने अपनी बीमार भ्रष्ट तथा संकीर्ण मानसिकता के चलते बुद्ध जयंती को दिपावली में समाहित कर दिया तथा अम्बेडकर जयंती को तिलक जयंती में परिवर्तित कर दिया। ई0आर0डी0एल0 में इसका काफी विरोध हुआ। वहाँ के चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी दीनाभाना व्यक्ति ने इन सभी घटनाओं का लिखित रूप में विरोध किया तथा इस भेदभाव पूर्ण घोषणा पत्र को वापिस लेने की जोरदार माँग की। इसे संवैधानिक माँग के एवज में  ऊँची कुर्सियों पर बैठे जालिम मनुवादियों में एक भी ना सुनी।

● दीनाभाना से हुई मुलाकात,दीनाभाना अम्बेडकर एवं बुद्ध जी के पक्के अनुयायी-
दीनाभाना राजस्थान के जिला जैसलमेर के गाँव बागास के मूल निवासी थे दीनाभाना का जन्म दलित समाज की भंगी जाति में हुआ था दीनाभाना दलित परिवार से होने के कारण उनकी पीड़ा से वे भलि-भांति परिचित थे। जाति के नाम पर बहुजन समाज घर अत्याचार होते हुये उन्होंने ना केवल देखा था, बल्कि खुद सहा भी था। धीरे-धीरे वे वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पूरी तरह बगावत पर उतर आये पिता के देहांत के बाद रोजी-रोटी की तलाश में अपने बड़े भाई के पास दिल्ली आए। अपने बगावती तेवरो के कारण उनकी अपने भाई से भी नहीं पटी रोज-रोज लड़ाई झगड़ों से परेशान होकर एक दिन भाई का घर छोड़ दिये और वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आ गये और वहाँ पर एक ट्रेन में जाकर बैठ गये उन्हें ये भी मालूम नही था कि वह ट्रेन कहाँँ जा रही है उनको नहीं पता था जब ट्रेन अपने गंतव्य स्थान पूना में जा रूकती है, तो दीनाभाना भी अन्य यात्रियां के साथ नीचे उतर आए। उस अजनबी शहर में किसी से कोई जान-पहचान नहीं था। जिसके कारण वे खुले आसमान के नीचे एक अनाथ की तरह पड़े रहते थे। कुछ दिनों बाद किसी तरह 10 आना वेतन पर वे ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिटरी एक्सप्लोजिव में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप मे कार्य नौकरी करने लगे दीनाभाना अम्बेडकर एवं बुद्ध जी के पक्के अनुयायी थे और उनके साहित्य को भी पढ़ा करते थे। अपने साथी कार्मचारियों को भी अम्बेडकर एवं बुद्ध जी के बारे में बता कर विचारों से अवगत कराते थे और उनको प्रेरित भी करते थे व अन्याय के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देते। उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरुक करते 1964 में दीनाभाना को कामगार कल्याण समिति मे प्रतिनिधि के रूप में चुन लिया गया था। उनकी आंखां में बगावत की जो चिंगारिया सुलग रही थी। वह प्रबंधकों के रास्ते का कांटा बन गए थे।

अम्बेडकर जयंती के दिन छुट्टी के लिए करना पड़ा आंदोलन-
दीनाभाना ने बुद्ध जयंती तथा आंबेडकर जयंती मनाने के लिये अवकाश की बात की परन्तु विभाग में प्रबंधकों से उनका ताल मेल अच्छा ना होने के कारण अवकाश नही मिला जिसके कारण वह आन्दोलन पर उतर आये वहाँ के वरिष्ठ अधिकारी उनसे काफी नाराज हो गये उन वरिष्ठ अधिकारियों में से कुछ अधिकारी मनुवादी मानसिकता के लोग भी थे और उन अधिकारियो को  बुद्ध एवं अम्बेडकर कदाचित पसंद नही थे वे अधिकारी आंदोलन कर रहे कर्मचारियों के आगे एक प्रस्ताव रखा। इस अन्यायकारी प्रस्ताव मे दो विकल्प रखा (1) नौकरी (2) छुट्टी दोनों विकल्प में से एक चुनना था जिसमें से बाल-बच्चों, रोजी-रोटी एवं गरीबी के कारण प्रबंधको के आगे झुक गए और कुछ दीनाभाना के साथ मैदाने-जंग में डटे रहे। वे झुकते भी तो कैसे जो उनकी आंखों से बगावत की चिंगारियाँ निकल रही थी। उन्हें ना तो भविष्य की चिंता था, न ही रोजी-रोटी छिनने का डर। वह सच्चा क्रांतिकारी था। अम्बेडकरी मिशन का निडर शेर था। वहाँ के व्यवस्थापकों ने सभी आंदोलनकारियों से कहा की तुम लोगों को क्या चाहिए नौकरी या अम्बेडकर जयंती की छुट्टी? दीनाभाना ने सीना तान कर कहा दोनों। क्यांकि इन दोनों चीजों पर मेरा संवैधानिक अधिकार है। नौकरी भी तथा अपने मसीहा डॉ0 अम्बेडकर जयंती की छुट्टी भी। वहाँ के लोगों ने तब अपना पैतरा बदल दिया और कहाँँ देखों तुम राजस्थान के हो। और अम्बेडकर तो महाराष्ट्र के महारों के थे। महार आंदोलन से पीछे हट गए है। तुम भी अपनी नौकरी बचा लो। छोड़ दो ये आंदोलन और काम पर वापिस आ जाओं। ऐसी बाते सुनकर दीनाभाना भड़क उठे। उन्होंने कहा बाबा साहेब केवल महाराष्ट्र के महारों के ही मसीहा नहीं थे, बल्कि समूचे भारत के करोड़ों बहुजन समाज के थे। अम्बेडकर ने सबके लिए संघर्ष किया था। शिक्षा संपत्ति और वोट का अधिकार उन्होंने सभी को दिलवाया था सामने बैठे अधिकारियों से दीनाभाना ने पूछा क्या आप तिलक जयंती की जो छुट्टी हुई है, उस दिन आप लोग ऑफिस आना पसंद करोगे ? तिलक भी तो आप सबके थोड़े ही थे। इसके बाद दीनाभाना की शिकायत मुख्य निरीक्षक से कर दी गई। मुख्य निरीक्षक अधिकारी आंध्रप्रदेश का ब्राह्मण था। उसने दीनाभाना को अनुशासनहीनता का एक तरफा आरोप लगाते हुए नौकरी से निकाल दिया।

कांशीराम जी और दीनाभाना से जब हुई मुलाकात, बताई नौकरी से किया बर्खास्त-
उसी संस्थान में कांशीराम एक अधिकारी की पोस्ट पर काम कर रहे थे। कांशीराम की नजर इन चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के दिलचस्प आंदोलन पर बनी रही। वे निष्पक्ष भाव से दिन-प्रतिदिन बदलते इस आंदोलन के समीकरणों को निहार रहे थे। दीनाभाना जब मुख्य निरीक्षक के केबिन से अपनी नौकरी से हाथ धोकर वापस लौटे, तो बाहर देखा लम्बे-चौड़े शरीर वाला व्यक्ति जिसका नाम कांशीराम को बाहर खड़े देखकर दीनाभाना ने सोचा की कोई ब्राह्मण अधिकारी होंगा। कांशीराम ने दीनाभाना को पास बुलाकर पूछा, “क्या हुआ? अंदर बड़ा शोर मचा रहे थे तुम।“ दीनाभाना ने बताया की वे लोग हमें डरा-धमका कर हस्ताक्षर करवाना चाहते थे, लेकिन मैने नहीं किया तो फिर? फिर क्या? उन्होंने मुझे नौकरी से बर्खास्त कर दिया। कांशीराम जी ने दीनाभाना से बोला इतने बड़े ऑफिसर से तुम्हे डर नहीं लगा? तब दीनाभाना ने उत्तर दिया कि मैंने कोई चोरी थोड़े ही की थी जो डरता अपना अधिकार ही तो माँग रहा था। इसी बात पर उसने मेरी नौकरी छीन ली। 
कांशीराम जी ने दीनाभाना के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, अधिकार माँगे नहीं जाते प्यारे, छीने जाते है। माँगी तो भीख जाती है और तुम हो कि अधिकार माँग रहे थे। दीनाभाना ने दबे स्वर में कहा की कांशीराम मैं कुछ समझा नहीं तब कांशीराम ने कहा चलो मैं तुम्हे कैंटीन में चल कर समझाता हूँ। कैंटीन में चाय पीते हुए कांशीराम जी ने दीनाभाना से पूछा अब तुम क्या करोगे?
दीनाभाना ने जवाब दिया मैं इस अन्याय के खिलाफ कोर्ट में जाऊंगा। कांशीराम ने कहाँँ तुम वकील करोगे? दीनाभाना ने कहाँँ होँ कांशीराम दीनाभाना से पूछे वकील की फीस तुम्हारे पास है। दीनाभाना ने कहाँँ मैं वकील को 10 रुपये प्रति माह दे सकता हूँ। इतने में कांशीराम जोरदार ठहाका मार कर हंसने लगे कैंटीन में बैठे लोगों की नजर कांशीराम पर घूम गई। उन्होंने दीनाभाना का बांह पकड़ कर उठाया और कहा चलो मेरे साथ, मैं तुम्हे अपनी जान-पहचान के एक वकील के पास ले चलता हूँ। वकील ने केस सुना इस केस में दम है हम केस जीत जाएंगे।

कांशीराम जी ने जब अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए किया दीनाभाना कि मदद बोले ऐसे लोग मेरे अपने है-
तब दीनाभाना ने पूछा आप कितनी फीस लेंगे। वकील ने कहाँ कम से कम एक हजार, इतना सुनते ही दीनाभाना की आंखे फटी की फटी ही रह गई। वह पत्थर की मूर्ति के समान खड़े रहे मुँह खुले का खुला, अंदर की की सांस अंदर और बाहर की बाहर। जैसे उनके उपर पहाड़ गिर गया हो दीनाभाना एक नजर कांशीराम की तरफ देखा और फिर सिर नीचे झुका कर पीछे मुड़कर वकील के चैंबर से बाहर निकलने लगे उसके अंदर सुलगती हुई बगावत की आग का आज पहली बार ठंडक’ से आमना-सामना हुआ था, वह धीरे-धीरे बाहर की तरफ लौट रहे थे, हारे हुए जुआरी की तरह उसे पहली बार अहसास हुआ था, वह कितना असहाय है, कितना अकेला। वह मन ही मन सोच रहा था, अम्बेडकर का लिखा कानून आज उन्हीं की औलादो की पहुँच से परे है, क्यांकि वे गरीब है। वकील और कांशीराम उसे खिसकते हुए देखे तो कांशीराम बोले दीनाभाना रूको जब दीनाभाना पलट कर देखे कांशीराम ने अपने जेब से पर्स निकाला। 100-100 की 5 नोट वकील को दिए और बोले आप कोर्ट में केस दायर करो। बाकी के पैसे भी मैं ही दूंगा। दीनाभाना भौचक्का सा होकर उन्हे देख रहा था। कांशीराम पैसे देकर दीनाभाना की तरफ आ रहे थे। कृतज्ञ होकर दीनाभाना ने कहाँँ साहब आप इतना खर्चा क्यों कर रहे है। मैं तो आपका न तो रिश्तेदार न सगा, कोई नहीं लगता हूँ तब कांशीराम ने जबाब दिया जो अधिकारो के लिए बहादुरी से लड़ते है, वे सभी मेरे अपने है। अब यह लड़ाई तुम्हारी नहीं है, मेरी भी है, हम सब की है। उस रात कांशीराम ना तो सो पाये ना तो खा पाये, उनके दिमाग में बस एक ही सवाल बार-बार गूंजता रहा क्या हम इसी तरह आजाद भारत में अपने महापुरुषों, मसीहाओं को अपमानित करवाते रहेंगे तथा खुद भी प्रताड़ित होते रहेंगे। उनके दिमाग में आया कि इस अंधेरे से उजाले तक जाने का रास्ता कौन-सा है इन्हीं सभी सवालों के बीच उलझे पड़े थे, तभी पपीहा बोल उठा। सुबह हो गई। इन सभी रास्ते की खोज के लिए कांशीराम निकल पड़े और रात-रात भर जग कर दीनाभाना के केस का अध्ययन करने लगे। कानूनी दाव-पेचों में उलझे-उलझे ही रात कब बीत जाये पता नहीं चलता उन्होंने अनेक वरिष्ठ अधिकारियों एवं मंत्रियों को इस घटना से अवगत कराया पहली बार वे अपने संस्थान के चतुर्थ क्षेणी कर्मचारियों के बीच गए। 
उनको संगठित एवं जागरूक किया। क्लास वन अधिकारी को अपने बीच खड़ा पाकर सभी कर्मचारी सीना तान कर आंदोलन में खड़े हो गए। एक दिन उन्होंने अपनी माँग के समर्थन में मोर्चा निकाला। मोर्चा सफल रहा।

कांशीराम जी ने बुद्ध तथा अम्बेडकर जयंती की छुट्टी को सरकारी छुट्टी घोषित करने के लिए लड़ी लड़ाई-
इस मामले ने इतना तुल पकड़ा की कांशीराम इस केस को लेकर रक्षा मंत्रालय पहुँच गये उस समय रक्षामंत्री यशवंतराव चव्हाण थे और रक्षामंत्री ने उच्च स्तरीय जाँच करवाई। समस्त दोषी अधिकारियों की जमकर खिचाई की और बुद्ध तथा अम्बेडकर जयंती की छुट्टियां सरकारी फिर से घोषित की गई। दीनाभाना की नौकरी बहाल की गई सभी कर्मचारी खुश थे। चारों तरफ कांशीराम के नाम की चर्चा होने लगी। दीनाभाना जिंदाबाद साहब कांशीराम जिंदाबाद के नारों से पूरा परिसर गुंज उठा। राष्ट्रव्यापी बेइज्जती से खिसियाए हुए मनुवादी अधिकारियों को जहर का घूंट पीना पड़ा अब उनकी आंखों में कांशीराम भी खटकने लगे।
एक दिन कांशीराम को सभी बड़े अधिकारी जो मनुवादी थे बुलाकर अपनी भड़ास निकाली। तुम क्लास वन ऑफिसर हों। तुम्हें अपने काम से काम रखना चाहिए। दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी है। कहा अधिकारी कहा कर्मचारी। तुम्हारा और उसका क्या मेल? कांशीराम ने कहा मेरा और उसका तो सबसे बड़ा मेल है। वह चूहड़ा (भंगी) है और मैं चमार हूँ। हम दोनों की राशि एक है, हम दोनों भाई-भाई है। उसकी तरफ जो भी बुरी नजर से देखेगा, मैं उसकी आंखे फोड़ डालूंगा।
इन सभी समस्याओं को लेकर कांशीराम घर तथा ऑफिस में दिन-रात उखड़े-उखड़े रहते थे। उनके मन में दिन-रात एक ही सवाल गुजता रहा-इस देश में हमारा क्या वजूद है?
किसकों हमारे अधिकारों की रक्षा करने की चिंता है? हमारी माँगों की सुनवाई कहाँँ हों सकती है? न जज हमारे, न बड़े अधिकारी और न ही मंत्री इन सभी से दुःखी होकर मन की शांति के लिए तथा अपने सवालों के जवाब के लिए वे अम्बेडकर का साहित्य पढ़ने लगे। ना खाने की सुध ना सोने की। बस दिन-रात किताबे ही किताबे। अम्बेडकर साहित्य में उन्हें अपने सवालों का जबाब मिला। उन्होंने पाया कि अनुसूचित जातियों जनजातियो, पिछड़े वर्गो तथा अल्पसंख्यक कर्मचारियों का जब तक शक्तिशाली संगठन नहीं बनता तब तक इन वर्गों की कोई सुनवाई नहीं हो सकती। वे इन वर्गों के कर्मचारियों का संगठन खड़ा करने में दिन-रात देश भर के कोने-कोने में घूम-घूम कर, उन्होंने एक संगठन खड़ा किया- ‘बामसेफ‘ बी0ए0एम0सी0ई0एफ0

जब कांशीराम जी ने ली प्रतिज्ञा-
कांशीराम जी ने प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरी 6 वर्ष में ही छोड़ दी। यह निर्णय उन्होंने अम्बेडकर के साहित्य का गहन अध्ययन-मनन तथा दलित समाज की दशा का चिंतन करने के बाद लिया था। कांशीराम बहुजन समाज का एक संगठन तैयार कर चुके थे ‘बामसेफ’ जिससे अब आगे के आंदोलन का रास्ता साफ दिखाई दे रहा था। सरकारी नौकरी उनके रास्ते में रोड़े की तरह अटकी हुई थी। उनके मन में एक ही सवाल गुंज रहा था मेरे जैसे दलित समाज में नौकरी करने वाले तो करोड़ों है किन्तु सब कुछ त्याग कर सामाजिक कार्य में और सहयोग करने वाला अम्बेडकर के मिशन को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है। अतः काफी सोच विचार करने के बाद कांशीराम ने 1964 को अपनी सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। जिससे वे सामाज के लिए कुछ भी कर पाने को आजाद हो गये थे और बहुजन समाज की उत्थान के लिए निकल पड़े, अधिकांश समय वे दलित समाज के नव जागरण की रूपरेखा बनाने में लगे रहते थे।
कांशीराम जी ने सरकारी नौकरी से त्याग पत्र देने के बाद अपने घर के लिए एक कठोर प्रतिज्ञाओं से भरा 24 पृष्ठो का पत्र भेजा जिसमें निम्नलिखित प्रतिज्ञाए थी।
● आज के बाद मैं कभी घर नहीं आऊंगा, मेरा अपना कोई घर नहीं है। देश भर के 85 प्रतिशत गरीब, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक का घर ही मेरा घर है।
● आज से मैं सभी रिश्ते-नातों से मुक्त होता हूँ मैं अपने किसी भी रिश्तेदार से कोई भी रिश्तेदारी नहीं निभाऊंगा- क्यांकि अब तमाम दलित वर्ग मेरे रिश्तेदार हो गये है।
● मैं आजीवन अविवाहित रहूँगा। मैं अपने जीवन को अपने परिवार तक ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए आज से समर्पित कर रहा हूँ। क्यांकि शादी के जंजाल में फंसने के बाद मैं अपने समाज के लिए कुछ नहीं कर पाऊंगा।
4ण् मैं आज के बाद किसी भी सामाजिक समारोह, जन्मोत्सव, विवाहोत्सव तथा मृत्यु भोज आदि में शामिल नहीं होऊंगा।
● मैं आज के बाद कोई भी पारिवारिक दायित्व नहीं निभाऊंगा, क्यांकि मेरे ऊपर अब पूरे समाज का दायित्व आ पड़ा है।
● मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी है तथा आज के बाद मैं कोई अन्य नौकरी नहीं करूंगा।
● जब तक डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का देखा हुआ सपना साकार नहीं हो जाता तब तक मैं कभी चैन से नहीं बैठूंगा-
ऐसे कठोर भरे प्रतिज्ञाओं से भरा पत्र परिवार को मिलने के बाद सन्नाटा छा-सा गया। परिवार बड़ा था और कांशीराम अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जिसमें कांशीराम बस सरकारी नौकरी में थे। जिससे उनके माँ बाप को बहुत उम्मीद थी सबकी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
कांशीराम के शादी के लिए कांग्रेस पार्टी के एक चर्चित एम0एल0ए0 की बेटी का रिश्ता आया था उनकी माँ ने बिना कांशीराम से पूछे रिश्ते के लिए हाँ कर दी थी। जब कांशीराम को पता चला तो वो मना कर दिये मुझको शादी नहीं करनी है माँ के मन में बड़े लड़के की शादी का बेहद चाव होता है। माँ किसी भी कीमत पर मँगनी तोड़ने के पक्ष में नही थी। अपने बेटे की कठोर प्रतिज्ञाओं से बहुत परेशान थी तथा कांशीराम को मनाने पूना पहुँच गई। और कांशीराम से घर चलने को कही तो कांशीराम बोले आप घर जाकर सबसे कह देना, अब मैं घर कभी नहीं आऊंगा। मुझे अपने समाज के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़नी है।
माता जी देखा कांशीराम में बड़ा परिवर्तन आ गया था वह गुम-सुम सा बैठा रहता। देर रात तक अम्बेडकर की किताबे पढ़ता। एक रात माता जी ने परेशान होकर बोला ‘‘वे कांशीया, अब तो सो जा, रात आधी से भी ज्यादा गुजर गई। पर वह फिर भी नहीं सोये। माता जी अपने बिस्तर से निकल कर गई और कांशीराम के हाथ से किताब छीन ली। गुस्से में पूछ बैठी आखिर क्या रखा है इन किताबो में जो रात-रात भर इनमें उलझा रहता है तू’’ तब कांशीराम ने बड़ी मासूमियत, बड़े प्यार से बताया, ‘‘माँ इन किताबो में देश की शासन व्यवस्था के दरवाजे का ताला खोलने की चाबी छुपी हुई है। मैं उसी चाबी को खोजता हूँ। माता जी दो महीनों तक समझाती रही, लेकिन कांशीराम अपनी प्रतिज्ञाएं तोड़ने को तैयार नहीं हुए। तब माता जी हार कर वापिस खवासपुर चली आई। मजबूरी में कांशीराम की मंगनी तोड़नी पड़ी।
1971 में चंडीगढ़ में ‘बामसेफ’ का अधिवेशन होने वाला था तभी कांशीराम के किसी रिश्तेदार ने माता जी को बताया कि वहाँ कांशीराम जरूर आयेगा इतना सुनते ही माँ की ममता तड़प उठी। अपने लाल की झलक पाने के पाने को माँ उतावली होकर वह खवासपुर से चंडीगढ़ पहुच गयी। लाखों कार्यकर्त्ताओं से खचाखच भरे हुए सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए माँ अपने लाल को ढंग से निहार भी नहीं पाई, क्यांकि माँ के आंखों में आंसू ही इतने उमड़ पड़े थे। कि माँ बस बेटे की आवाज सुन रही थी सम्मेलन चल ही रहा था तभी किसी ने माँ को उनके बेटे से मुलाकात कराने ले गया माँ-बेटे का जब मिलाप हुआ, तो देखने वाले भी विलख उठे। ऐसा लग रहा था कि माँ की आंखो से आंसुओं का दरिया उमड़ पड़ा हो, माँ ने बेटे को झिंझोड़ते हुए बोली, वे कांशीया, तू तो हमको बिलकुल ही भूल गया। तुम्हे तो हमारी याद ही नहीं आती, तेरे बगैर तेरे बापू की क्या दशा हो गई है, तेरी बहने तुझे याद करके कितना रोती है। तेरे भाई तेरा कितना इंतजार करते है। तू इतना पत्थर दिल कैसे हो गया? माँ की फटकारो ने एक बेटे को भीतर से हिला दिया। वह कुछ पल के लिए नरम पड़े और माँ से सिसकते हुए बोले माँ यदि मुझसे मिलने का दिल करे तो ऐसे सम्मेलनों में चली आया करना। और परिवार के अन्य सदस्य भी मुझसे इन्ही सम्मेलनों में मिल सकते है लेकिन मैं घर नहीं आ सकता।

माता पिता एवं परिवार को भूलकर, समाज का हो जाने के बाद कि ऐसी कहानी की रो देंगे आप-
कांशीराम जी अपने भाइयों बहनों की भी शादियों में शामिल नहीं हुए। उनकी एक बहन की आकस्मिक मृत्यु पर भी नहीं पहुँचे परिवार की सभी सूचनाये गाँव के व्यक्ति या किसी रिश्तेदारों के माध्यम से मिलती रहती थी कभी पूना या कभी दिल्ली अधिवेशनों में माँ बेटे की शक्ल देखने को तरस जाती बहन राखी बांधने के लिए भाई का इंतजार करती, मगर वे खुद तो क्या ही आते, उनकी चिठ्ठी तक न आती।
बामसेफ के एक अधिवेशन में कांशीराम लाखों की भीड़ को सम्बोधित कर रहे थे तभी उनके पिता भी वहाँ पहुँचे और उन्होंने देख वहाँ की जनता कांशीराम को नारों के साथ उत्साह दे रही थी ‘कांशीराम जिंदाबाद’, कांशीराम आगे बढ़ों हम तुम्हारे साथ है’ इन नारों को सुनकर भीड़ को देख कर कांशीराम के पिता जी बहुत खुश थे। 
घर आकर खुशी की बर्दाश्त नहीं कर पाए। हर्ष में उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे अपने लाल का अगला करिश्मा देखने से पहले ही चल बसे। लोग प्रतिज्ञाएं कर लेते है, लेकिन भावनाओं में बह कर उन्हें तोड़ देते है। पर कांशीराम जी ने जो प्रतिज्ञाएं की उन्हें निभाया। उनके पिता सरदार हरिसिंह जी की मृत्यु हो गई। वे उनके अंतिम संस्कार में भी उपस्थित नहीं हुए। जबकि समय रहते उन तक सूचना दी गई थी। वे खवासपुर से ज्यादा दूर भी नहीं थे। चाहते तो आ सकते थे, लेकिन नहीं आए अंत में उनके भाई ने पिता की चिता को अग्नि दी।

( डॉ. अवनीश कुमार गभीरन जौनपुर )





-
और नया पुराने



 

Powerd by

ads

 -------आपके अपनो की ख़बरें, इसे भी पढ़ें-------



       
    WhatsApp Group Join Now
    Telegram Group Join Now
    Subscribe Youtube Subscribe Now
    WhatsApp Group Join Now
    Telegram Group Join Now
    Subscribe Youtube Subscribe Now

    نموذج الاتصال

    DMCA.com Protection Status